हाल ही में प्रेम दिवस पर
श्री शरद कोकस जी की एक कविता पढ़ी-उसके इस एक अंश से न जाने कितने विचार मन में उठने लगे.
बरसों बाद भी
खत्म नहीं होती अपेक्षाएँ
शुभकामनाओं की तरह अल्पजीवी नहीं होती अपेक्षाएँ
पलती रहती हैं
समय की आँच में
पकती रहती हैं |
और कविता के अंत में अपनी 'पूर्व प्रेमिका [?]'से अपेक्षा भी ज़ाहिर कर भी देते हैं.
कविता में कुछ गलत नहीं कहा गया ,वह अच्छी थी मगर सोच रही थी कि अपेक्षाएं क्यूँ दीर्घजीवी होती हैं?रिश्ते की परिपक्वता के साथ साथ क्यूँ बढती चली जाती हैं क्यूँ समय की आंच में पकती रहती हैं?
दुनिया का क्या हर रिश्ता अपेक्षाओं के अधीन है?कौन सा रिश्ता अछूता है?क्यूँ हम इन रिश्तों की परवरिश बिना अपेक्षाओं के नहीं कर सकते ?
मैं अगर कहूँ कि
'चाहे थोड़ा प्यार करो ,मगर बिन तक़रार करो! तो क्या ग़लत कहा ?यह अपेक्षा नहीं मात्र एक इच्छा है! तक़रार /झगड़े/मन मुटाव क्या ये सब इन्हीं अपेक्षाओं के चलते नहीं होते?
'इच्छा 'और 'अपेक्षा 'में बहुत अंतर है.इसी को
श्री कृष्ण गोपाल मिश्रा जी भगवद गीता के एक श्लोक का उदाहरण देते हुए समझाते हैं-
[इसकी पूरी व्याख्या आप उन्ही के ब्लॉग पर भी पढ़ सकते हैं]
अनपेक्षः शुचिर दक्षः उदासीनो गतव्यथः | सर्व आरंभ परित्त्यागी, यो मद भक्तः, स मे प्रियः ||
इच्छा, जीवन का कारण है, और अपेक्षा मृत्यु का. इच्छा का बिना अपेक्षा के होना श्रेयस्कर है. एक आर्त (बीमार, असंतुष्ट, या दरिद्र) व्यक्ति की चेष्टा उसकी इच्छा के बिना संभव नहीं हो सकती. इसी तरह, एक चिकित्सक की अपनी इच्छा उसे दया, सलाह और औषधि के लिए विवश कर सकती है. इस तरह स्वतंत्र इच्छा-शक्ति, के मूल में श्रृद्धा और विश्वास स्थित होता है जो जीवन का एक मात्र आधार है. जबकि अपेक्षा एक व्यावसायिक (विषय युक्त) बंधन है, जो नियंत्रण पर आधारित होता है, और जिससे विश्वास का ह्रास होता है. अर्थात, विश्वास और अपेक्षा अलग अलग अर्थ रखते हैं. जिन पर विश्वास किया जा सकता है, उनसे अपेक्षा नहीं हो सकती. और जिनसे अपेक्षा होती है, उन पर विश्वास नहीं हो सकता.....contd... |
सच ही कहा है जिन पर विश्वास किया जा सकता है उनसे अपेक्षा नहीं करनी चाहिये.क्योंकि जहाँ आप ने अपनी अपेक्षाएं बढ़ाईं वहीँ रिश्तों की बुनियाद कमज़ोर होने लगती है.
यह रिश्ता कोई भी हो..जब अपेक्षाएं पूरी नहीं होती तो कुंठाएं जनम लेती हैं और रिश्तों में कडुवाहट घुलने लगती है.रिश्तों को खत्म करने में इन्हीं का बहुत बड़ा योगदान होता है.
रिश्तों में इनको हावी न होने दें.क्या कोई भी आत्मीय सम्बन्ध अपेक्षा रहित नहीं हो सकता?
किसी से भी अधिक अपेक्षा करना उसे हतोत्साहित ही करता है और व्यक्ति में नकारात्मक उर्जा का प्रवाह अधिक होने लगता है.
और जब इनका बोझ उठाया नहीं जाता तो व्यकित विद्रोही बन जाता है...सामने वाले से ,समाज से और खुद अपने आप से भी!
हर रिश्ते को दीर्घजीवी और मजबूत बनाने के लिए अपेक्षाएं नहीं विश्वास की जरुरत है.
जानती हूँ यह सब कहने की बातें हैं ऐसा होना संभव ही नहीं,भगवान और भक्त का नाता भी इस से अछूता नहीं है.
बेसिकली हम सब स्वार्थी हैं और हर रिश्ते को स्वार्थ के तराजू में ही तोला करते हैं.इसीलिये निस्वार्थ प्रेम,समर्पण सब किताबों में अच्छा लगता है.
वास्तव में तो हम सब अपने Emotions को,Feelings को रिश्तों में इन्वेस्ट करते हैं और बस रखते हैं Never dying अपेक्षाएं! |
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