वह ४८ वर्ष की तलाकशुदा महिला थी ,उसके दो बच्चे विदेश में पढ़ रहे हैं .
एमिरात के इस छोटे शहर के प्राइवेट अस्पताल में अच्छे वेतन पर हेड नर्स की नौकरी में जनवरी २०१८ से लगी हुई थी,सूत्रों के अनुसार उसका सबसे मिलनसार स्वभाव था.
कल शाम उसने अस्पताल की इमारत से कूदकर आत्महत्या कर ली. कोई नोट नहीं छोड़ा.
यह घटना इसलिए लिख रही हूँ कि बात सिर्फ किसी दुर्घटना की नहीं बल्कि इस घटना के एक दूसरे दुखद पहलू की है.
अस्पताल के अधिकारियों द्वारा भारत में उसके परिवार से संपर्क किये जाने पर उसके परिवार और उसके बच्चों तक ने उसका शव लेने से मना कर दिया ,न ही वे उसको देखना चाहते हैं .
मृतका के अपने मायके में भी कोई उसके शव को पाना नहीं चाहता क्योंकि उन्होंने उसे दूसरे धर्म में शादी करने पर अपनी बिरादरी से बाहर कर दिया था .
प्राप्त समाचारों के आधार पर आज उसका अंतिम संस्कार विद्युत् गृह में अस्पताल द्वारा कर दिया जाएगा.
इस घटना से हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि क्या परवरिश का दोष है जो बच्चे भी अपनी मृत माँ को देखना नहीं चाहते!
अगर उसके स्वभाव में कोई दोष होता तो उसके साथ काम करने वाले कोई कुछ बताते .
पैसे को प्राथमिकता देते हुए हम सोचते हैं बच्चों को सुख -सुविधाएँ देकर हमारे दायित्व की इति-श्री हो गयी ?
अंत समय में , कोई साथ दे न दे कम से कम अपने जाये बच्चों से क्या उसने ऐसी उम्मीद की होगी कि उन्होंने उसके शव को लेने से भी मना कर दिया !
एक बार फिर से मैं इस निष्कर्ष पर पहुँची हूँ कि बच्चों में संस्कार देना माँ की ही सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है.